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06 October, 2011

जिंदगी की पहेली

मेरी जिंदगी की कश्ती बिन माँझी के
ईशारों पे चलता रहा काली आंधी के

मौत की आहट, हमेशा डराती रही
साँस आती रही साँस
 जाती रही।


जख्म नासूर हुआ, थी मरहम की चाहत
खुदा भी रो दिया, देखा जो मेरी हालत 

कतरा कतरा आंसू , पलकों में समाती रही
साँस आती रही साँस जाती रही।

मेरे दर्द-गम में, कई लोग घुल गये
बिछड़े कई तो कई मिल गये।

जिंदगी अपना रंग, कुछ यूँ  दिखाती रही
साँस आती रही साँस जाती रही।

आँसू नही तुझे पसीना बहाना है
खुदी को बुलंद कर, मंजिल तक जाना है।

माँ सिसकती रही और बताती रही
साँस  आती रही  साँस जाती रही।

जिंदगी तो अनसूलझी एक पहेली है
कभी दुश्मन तो कभी सहेली है।

मैं समझा नही, माँ  समझाती रही
साँस आती रही साँस  जाती रही।

6 comments:

संजय भास्‍कर said...

बहुत बढ़िया,
बड़ी खूबसूरती से कही अपनी बात आपने.....

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 10/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

vidya said...

सचमुच अनगढ़ पहेली ही तो है ये जीवन...

बहुत सुन्दर रचना...
शुभकामनाएँ.

स्वाति said...

सच कहा अपने..कभी पहेली तो कभी सहेली है ये जिंदगी...सुन्दर रचना..

सदा said...

बहुत बढि़या।

मेरा मन पंछी सा said...

जिंदगी के अजीब किस्से है
कभी सहेली बन साथ निभाती है
तो कभी पहेली बन उलझाती है
बेहतरीन रचना..

लिखिए अपनी भाषा में...

जीवन पुष्प

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