कब सुन पाउँगा फिर
अम्मा की वो लोरी,
खाली हो चूका है
किस्से की तिजोरी !
सुनते थे दास्ताँ कभी
चुप-चाप परियों की,
अब सुनते है सिर्फ
टिक–टिक घड़ियों की !
आधी रातों में उठकर
बैठ जाते है अक्सर,
कब मुमकिन होगा फिर
आँचल का मयस्सर...!
छोड़ कर वो बचपन
अब छुट चुका पीछे
सच्चाई, कोमलपन
हूँ यहाँ शहर में
लोंगों की शोर में
सच्ची मुहब्बत नहीं
सच्ची ईबादत नहीं
बस स्पर्धाओं का
हर तरफ जंग है
ज़िन्दगी रंग कभी,
जिंदगी बेरंग है ...!
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