हम दीपक जलाये
थी चाहत उड़ने की
दूर पंख फैलाये
था तकदीर का दोष
या तदबीर का रोष
जो मुन्तजिर हुए हम
और छुट गया संग
गूंजती है आज भी
आवाज रूहानी सी
उठती है सीने में
एक कसक पुरानी सी
अब नीर नैनों के
स्वछन्द बह जाये
एक संदेसा है उनको
वो भी दिल से भुलाये
ताकि बिसरी हुई यादें
अब, और न रुलाये...!
3 comments:
AAPKI KAVITA PADH KE HAME APNI KAHANI YAAD AA GAYI..
SUPERB KAVITA, SHABDO KA TAALMEL BAHUT ACHCHA HAI...
बहुत - बहुत धन्यवाद जी !!!
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