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28 September, 2011

सिसकती रुह

सिसकती रुह परेशान है।
मेरी जिंदगी अब श्मशान 
है।


रंगत बुलंद है रंजिशों की
रंजीदा दिल बेजान है।

 शिगाफ है बेआबरु जिगर में
गर्दिश में हमारी शान है।
 

तअल्लुकात क्या रखूं शीरीनी से,
जब जहर में बुर्द मेरी जान है।

बेगाना हुआ दिल बेकसूर
अब बेहया का क्या मुकाम है?

सूफी बनने को चला था वो,
आज खाक मे उसका ईमान है।

क्यों उम्मीद करुं और सब्र करु
जब रहगुजर का काम तमाम है।


12 comments:

Anju (Anu) Chaudhary said...

बहुत खूब...उम्दा

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 26/12/2011को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Arun sathi said...

साधु-साधु

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अच्छी गज़ल ..

समसान की जगह शायद शमशान आना चाहिए

सदा said...

वाह ...बहुत बढि़या।

vandana gupta said...

बहुत खूब

S.M.HABIB (Sanjay Mishra 'Habib') said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
सादर बधाई

सदा said...

कल 28/12/2011 को आपकी कोई एक पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्‍वागत है, कौन कब आता है और कब जाता है ...

धन्यवाद!

Prakash Jain said...

behtareen

अजय कुमार झा said...

आपके ब्लॉग का कलेवर बहुत ही खूबसूरत है । सुंदर रचना । आगामी वर्ष के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएं

Rajput said...

लाजबाब रचना
नववर्ष की मंगल कामनाएं .

मेरा मन पंछी सा said...

सुन्दर अभिव्यक्ति ...

लिखिए अपनी भाषा में...

जीवन पुष्प

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